लेख: प्रशान्त त्रिपाठी, विशेष संवाददाता, लखनऊ।
उन्नाव जनपद का आरटीओ कार्यालय इन दिनों भ्रष्टाचार, घूसखोरी और दलालों की खुली दखलंदाज़ी के कारण सुर्खियों में है। ताज़ा मामला तब सामने आया जब एक उपभोक्ता ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने की नियत से आरटीओ-ए अरविंद कुमार सिंह से मिलने गया। लेकिन वहां उसे सेवा नहीं, बल्कि सरेआम तिरस्कार और गुस्सैल बर्ताव का सामना करना पड़ा। वजह सिर्फ इतनी थी कि वह बिना किसी दलाल के सीधा दफ्तर पहुंचा था।
सीधी बात, नो घूस – तो भड़के अफसर
बताया जा रहा है कि जैसे ही उपभोक्ता ने नियमों के तहत अपना काम करवाने की कोशिश की, वैसे ही आरटीओ-ए अरविंद कुमार सिंह तमतमा उठे। उनका रुख़ इतना कड़ा और व्यवहार इतना अशोभनीय था कि उपभोक्ता को बिना कोई उचित सुनवाई के दफ्तर से बाहर निकाल दिया गया। ना केवल ये प्रशासनिक दुर्व्यवहार था, बल्कि एक आम नागरिक की गरिमा के साथ सीधा खिलवाड़ भी।
“बिना चढ़ावे के न होगा काम” – दलाली की खुली दुकान
उन्नाव आरटीओ कार्यालय की हालत यह है कि वहां कोई भी काम बिना दलाल या ‘गुजारा शुल्क’ के नहीं होता। फॉर्म भरने से लेकर लाइसेंस बनाने, गाड़ी का परमिट लेने, फिटनेस प्रमाण पत्र जारी कराने तक – हर काम के लिए बिचौलियों की एक सेना तैनात रहती है। यदि कोई व्यक्ति सीधे दफ्तर जाए, तो उसका काम या तो टाल दिया जाता है, या फिर उसे हफ्तों तक दौड़ाया जाता है। वहीं दूसरी ओर, यदि वही काम किसी दलाल के माध्यम से करवाया जाए, तो “एक्सप्रेस सेवा” की तरह चुटकियों में पूरा हो जाता है।
सिस्टम का गंदा सच: “फाइल में ₹200 दबाओ – साइन होकर बाहर आओ”
दफ्तर के अंदर की कहानी ये है कि खिड़की के रास्ते जो फाइलें भीतर जाती हैं, उनमें अगर ₹200-₹500 का नोट दबा हो, तो वे तुरंत स्वीकृत होकर बाहर आ जाती हैं। यह कोई एक दिन की बात नहीं, बल्कि रोज़मर्रा का नज़ारा बन चुका है। यह एक सुनियोजित घूस तंत्र है, जिसमें नीचे से ऊपर तक सबकी हिस्सेदारी तय है। ऐसे में सवाल उठता है – जब भ्रष्टाचार ही नियम बन जाए, तो कानून की उम्मीद किससे की जाए?
नई अफसर भी बन गईं मौन दर्शक
हाल ही में नियुक्त आरटीओ-ए अधिकारी श्वेता वर्मा से जनता को उम्मीद थी कि शायद कुछ सुधार देखने को मिलेगा। लेकिन उनकी नियुक्ति के बाद भी व्यवस्था में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। ऐसा प्रतीत होता है कि या तो वे इस भ्रष्ट सिस्टम में असहाय हैं, या फिर उन्होेंने भी व्यवस्था के आगे घुटने टेक दिए हैं। परिणामस्वरूप, उपभोक्ताओं को अभी भी वही पुरानी लाठी खानी पड़ रही है।
बड़ी सिफारिशें और ताकतवर दलाल: एक संगठित गिरोह
इस पूरे तंत्र में कुछ नामी-गिरामी दलालों की भूमिका बेहद प्रभावशाली है। इनकी सिफारिशें दफ्तर के बड़े से बड़े अफसर भी नजरअंदाज़ नहीं कर पाते। ऐसे में आम जनता के लिए यह दफ्तर किसी कालकोठरी से कम नहीं, जहां न तो उन्हें इज्जत मिलती है और न ही समय पर न्याय।
रोज़ होता है उपभोक्ताओं के साथ मानसिक उत्पीड़न
आरटीओ कार्यालय में घुसते ही एक आम नागरिक को ऐसा महसूस होता है मानो वह किसी तानाशाही राज्य में प्रवेश कर गया हो। बिना दलाल के किसी खिड़की पर बैठा बाबू बात तक नहीं करता। फॉर्म में छोटी सी गलती बताकर वापस भेज देना, कागज़ पूरे होते हुए भी कोई नया कारण खड़ा कर देना – यह सब रोज़ की कहानी बन चुकी है।
जनता पूछ रही है – ये लोकतंत्र है या दफ्तर में दलालों का राज?
क्या यही है ‘जन सेवा’ का चेहरा? क्या आम जनता के लिए बने कार्यालय अब सिर्फ चंद बिचौलियों और घूसखोर कर्मचारियों के लिए हैं? आरटीओ-ए जैसे पदों पर बैठे अधिकारी जब खुद दलालों के इशारे पर नाचें, तो जनता के अधिकारों का क्या होगा?
प्रशासन की चुप्पी – मौन स्वीकृति या लाचारी?
अब ज़िम्मेदारी जिला प्रशासन की बनती है कि वह इस पूरे प्रकरण पर संज्ञान ले और आरटीओ कार्यालय में चल रहे भ्रष्टाचार पर तत्काल कार्रवाई करे। दोषियों की पहचान कर उनके खिलाफ विभागीय जांच और निलंबन जैसे सख्त कदम उठाए जाएं। अन्यथा, जनता का प्रशासन पर से विश्वास पूरी तरह उठ जाएगा।
उन्नाव आरटीओ कार्यालय का ये काला सच अब जनता के सामने आ चुका है। सवाल यह नहीं कि घूसखोरी हो रही है, सवाल यह है कि इसे रोकने के लिए अब तक क्या किया गया? और अगर नहीं किया गया, तो क्यों?
जब घूस ही सिस्टम बन जाए, तो न्याय की उम्मीद बेमानी हो जाती है।
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